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Tuesday 25 April 2017

गुमान तुम्हारे ज़िक्र का

इन कागजों पर असर है हवाओं का,
या इन्हें इस बात का गुमान है कि इन पर तुम्हारा ज़िक्र हो रहा है,
जो ये बेसुध से उड़ने लगे हैं,

या रंगीनियत तुम्हारे गालों की,
या खूबसूरती तुम्हारे बालों की,
जिन्हें सिर्फ मेरे कहने पर खोल लिया था तुमने,
या वो अल्फ़ाज़ जिन्हें धीरे से बोल लिया था तुमने,

या वो खुद को पुराने खयालों की बताना,
उस पर मेरा तुम्हारी पीठ थपथपाना,
कितनी सादगी से कहना कि मुझे भी यही सब चाहिए,
फिर उन बातों को उसी सादगी से भूल जाना,

वो सभी बातें आज भी संभाले रखी है मैने,
उन्हें दुबारा पढ़ कर ज़रूर सुनाऊंगा तुम्हें,
जो तुमने भी की और कभी-कभी मैने भी,
उन सभी वादों को ज़रूर दोहराऊंगा तुम्हें,

पर मेरी प्यारी दोस्त ये कैसी अजब खामोशी है,
जो मुझे कुछ कहने नहीं देती तुम्हें कुछ सुनने नहीं देती,
कहीं तुम इस दुनिया की बातों में तो नहीं आ गयी हो,
जो मोहब्बत की रेशमी चादर किसी को बुनने नहीं देती,

जानता हूं तुम्हें खयाल मर्यादा का है,
पर तुमने मुझे समझा ही नहीं मेरी दोस्त,
मेरा मक़सद सिर्फ दिल बहलाना नहीं था,
इन सब मे कभी उलझा ही नहीं मेरी दोस्त,

तुम्हीं ने कहा था कि मोहब्बत आसां नहीं होती,
कि मोहब्बत की कोई ज़ुबां नहीं होती,
पर सच बताना क्या एक पल को भी तुम्हे प्यार महसूस नहीं हुआ?

मैं वो आशिक़ नहीं कि प्यार मुकम्मल ना हो तो प्यार को बदनाम कर दिया,
पर मैने हमेशा के  लिए ये दिल ये दिमाग सिर्फ तुम्हारे नाम कर दिया,

अब मुकम्मल ना होने की सूरत में अकेला ही रहूंगा,
लेकिन तुम्हारे सिवा किसी और को नहीं चाहूंगा,

इन सभी भारी बातों के बाद कागज़ भी भारी हो गए, फिर भी ना जाने क्यों,
शायद इन्हें फिर गुमान हो गया है तुम्हारे प्यार के जिक्र का,
जो ये बेसुध से हवा में उड़ने लगे हैं।

   ~पवन गोरखपुरी

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